सोरो से नागाजी धाम तक – भोले के भक्तों की भव्य कांवड़ यात्रा

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पोरसा।

द्वितीय डांक कांवड़ यात्रा का आयोजन भक्तिभाव से किया जा रहा है, जो सोरो (उत्तर प्रदेश) से प्रारंभ होकर नागाजी मंदिर, पोरसा (जिला मुरैना, मध्य प्रदेश) तक जाएगी। यह यात्रा पूरी तरह से भोले बाबा की इच्छा पर आधारित है, जिसका समय भी उन्हीं की कृपा से निर्धारित होगा। श्रद्धालुओं का उत्साह और आस्था इस पवित्र यात्रा को और भी दिव्य बना रही है। यात्रा में भाग लेने वाले प्रमुख भक्तगणों में चेतन तोमर, भुवनेश तोमर, विक्रांत तोमर, दिनेश सिकरवार, अरुण भदौरिया, सत्यवीर कुशवाह, राघवेन्द्र कुशवाह, अनुराग तोमर, नीरज कुशवाह, आकाश कुशवाह, विजय कुशवाह, कृष्णा कुशवाह, मनोज कुशवाह, अजय कुशवाह, रामू कुशवाह, जवर सिंह, होम सिंह, प्रमोद कुशवाह, हरवीर कुशवाह, किशन कुशवाह, सोनू कुशवाह, राहुल कुशवाह, नेपाल कुशवाह, सौरभ कुशवाह, कल्ले कुशवाह तथा पवन कुशवाह शामिल हैं। सभी भक्त बम-बम भोले और हर-हर महादेव के जयघोष के साथ इस आध्यात्मिक यात्रा को पूर्ण करेंगे। यह यात्रा केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि श्रद्धा, समर्पण और एकता का प्रतीक है। इस यात्रा के निवेदक समस्त ग्रामवासी एवं श्रद्धालु मनेकापुरा, नागाजी धाम, पोरसा (जिला मुरैना, मध्य प्रदेश) हैं, जो इसे सफल बनाने में पूर्ण मनोयोग से समर्पित हैं।




कांवड़ यात्रा की मान्यता हिन्दू धर्म में अत्यंत पवित्र, श्रद्धा और आस्था से जुड़ी हुई परंपरा है। यह यात्रा विशेष रूप से सावन माह में की जाती है और शिवभक्त (कांवड़िये) अपने कंधों पर कांवड़ लेकर पवित्र नदियों (जैसे गंगा, यमुना आदि) से जल भरकर शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए पैदल यात्रा करते हैं।

*🔱 कांवड़ यात्रा की प्रमुख मान्यताएं:*

1. भगवान शिव को समर्पित सेवा और भक्ति: कांवड़ यात्रा को भगवान शिव की विशेष पूजा माना जाता है। ऐसा विश्वास है कि जो भी श्रद्धा और नियमपूर्वक कांवड़ यात्रा करता है, उसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।


2. पापों से मुक्ति: मान्यता है कि इस यात्रा से मनुष्य अपने पापों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।


3. समर्पण और संयम का प्रतीक: यह यात्रा आत्मनियंत्रण, संयम और तपस्या का प्रतीक मानी जाती है। कांवड़िये यात्रा के दौरान नियमों का पालन करते हैं—जैसे सात्विक भोजन, ब्रह्मचर्य और अहिंसा।


4. पौराणिक संदर्भ: ऐसा कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय निकले हलाहल विष को भगवान शिव ने ग्रहण किया था। उसके प्रभाव को शांत करने के लिए देवताओं ने गंगाजल अर्पित किया था। तभी से यह परंपरा चली आ रही है कि श्रावण मास में गंगाजल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है।


5. समूहिक भक्ति और एकता का पर्व: यह यात्रा समाज में भक्ति, सहयोग, और भाईचारे का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है। हजारों-लाखों श्रद्धालु मिलकर एक ही लक्ष्य के लिए कदम बढ़ाते हैं।


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