रीवा जिले मे दो-दो बीजेपी: एक कमलछाप, दूसरी पंजाछाप!”

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पत्रकार बालेंद्र तिवारी कि खास रिपोर्ट



रीवा की धरती बड़ी अद्भुत है। यहां राजनीति भी मौसम की तरह बदलती है। सुबह कोई कांग्रेसी होता है, दोपहर में भाजपाई और शाम तक वह फिर से “निष्पक्ष समाजसेवी हो जाता है! अब देखिए, प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री मोहन यादव जी रीवा पधारे। पूरा सरकारी तामझाम, मंच, माइक, माला, मटर और मंचासीन मुस्कान के साथ आगमन हुआ, लेकिन जनता ठिठकी आंखें मलती रही और कान खुजलाते हुए बोली “अरे भइया, प्योर बीजेपी गई कहाँ?”

मुख्यमंत्री मुस्कुरा रहे थे, और उनके इर्द-गिर्द जो चेहरों की फसल लहलहा रही थी, उसमें से अधिकांश ऐसे ‘कमल छाप’ कांग्रेसी थे जिनकी आत्मा आज भी पंडित नेहरू की टोपी में बसती है। चेहरे पर भगवा पाउडर लगा लेने से संस्कार तो नहीं बदलते ना भइया!
सबसे पहले जो नजर आए वो थे सिद्धार्थ तिवारी राज, जो कभी कांग्रेस के तारणहार माने जाते थे। उनके दादा, परदादा, चाचा, ताऊ, सब कांग्रेस की मिट्टी में गढ़े हुए हैं। पर अब जब सत्ता की धारा बदली तो ये साहब भी ‘बैकवर्ड फ्लिप’ मारकर बीजेपी की गोदी में जा बैठे। अब मंच पर सबसे आगे खड़े थे, मुख्यमंत्री के स्वागत में ऐसे झुकते कि रीवा का फ्लाईओवर भी शरमा जाए। फिर मंच के पिछवाड़े में हल्की सी मुस्कान के साथ खड़े मिले अजय सिंह पटेल जी, जिनका कांग्रेस से नाता ऐसा था जैसे खिचड़ी से दही। अब कमल छाप लगा तो लिया, लेकिन मन अभी भी ‘पंजा छाप’ सी वोटिंग करता है।

*अब सवाल ये उठता है कि क्या रीवा में दो बीजेपी है?-:*
एक वो जो भाजपा के सिद्धांतों पर चलती है, मेहनत करती है, दर-दर की खाक छानती है, बूथ स्तर पर लड़ती है। और दूसरी वो जो “कमल छाप कांग्रेसी”  हैं, जो केवल रंग बदलकर कमल के पंखुड़ियों में घुस आए हैं, लेकिन आदतें, चाल-ढाल, और भाषण अब भी कांग्रेसिया हैं! मुख्यमंत्री जी जब भाषण देते हैँ तो जनता कम मुख्यमंत्री को देख पाती है और ज़्यादा उनकी बगल में खड़े पूर्व कांग्रेसी नेताओं को निहार रही थी। कोई बुजुर्ग कान में कहता है

“बेटा, ये सब तो वोही हैं जो कल तक मनमोहन सिंह की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, आज मोदी जी के ‘मन की बात’ सुनवा रहे हैं। ये सत्ता की मोहब्बत है बेटा, इसमें विचारधारा नहीं देखी जाती, केवल कुर्सी की पॉलिश चमकती है।”
पंडाल में असली भाजपाई कार्यकर्ता खोज पाना ऐसा हो गया जैसे गूगल मैप पर गांव का कुआं ढूंढना है, लेकिन दिखता नहीं!

अब आम जनता भी कन्फ्यूज़ हो गई है। वो कह रही है“एक बार तो तय कर लो साहब, बीजेपी मतलब बीजेपी, या कांग्रेस की दोबारा पैकिंग? वोट किसको दें,
विचारधारा को या वफादारी बदलने वाले रंग-बिरंगे नेताओं को ?

इससे बेहतर तो गांव का रामू है, जो आज भी अपने बाप की साइकिल चलाता है, लेकिन विचारधारा नहीं बदलता। ये नेता लोग आज हनुमान चालीसा पढ़ते हैं, और कल ‘वंदे मातरम्’ पर भी ‘जय श्रीराम’ की जगह ‘जय सोनिया गांधी’ बोल सकते हैं।

*रीवा में अब जनता को दो चीजें चाहिए-:*
1. शुद्ध देशी गाय का दूध

2. और शुद्ध विचारधारा वाली बीजेपी।

बाकी “कमल छाप कांग्रेसियों” को देख जनता को लग रहा है कि जल्द ही नए पोस्टर छपने वाले हैं
“नवसंस्कृत बीजेपी: पुराने कांग्रेसी, नए भगवाधारी!”

शायद इसी तरह रीवा की राजनीति का DNA अब EVM में कम, और Google Translate में ज़्यादा मिलेगा “कांग्रेस इन हिंदी, बीजेपी इन संस्कृत!”

अब देखना ये है कि अगली बार जब मुख्यमंत्री जी आएंगे तो उनके स्वागत में कौन खड़ा होगा
“प्योर बीजेपी वाला या प्योर ‘बदला हुआ’ कांग्रेसी!”

तब तक जनता अपनी कमर कस ले, क्योंकि राजनीति अब विचारों की नहीं, पहचान छिपाकर मंच लूटने वालों की हो गई है!


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